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सुनी हैं साँसें / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>हम सदा जो नहीं सुनते <br> साँस अपनी <br> या कि अपने ह्रदय की गति— <br> वह अकारण नहीं। <br> इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना। <br> स्वयं अपने से <br> या कि अन्तःकरण में स्थित एक से। <br> उपस्थित दोनों सदा हैं, <br> है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम <br> स्वयं अपने सामने आने नहीं देते। <br> ओट थोड़ी बने रहना ही भला है— <br> देवता से और अपने-आप से। <br> <br>
किन्तु मैं ने सुनी हैं साँसें <br> सुनी है ह्रदय की धड़कन <br> और, हाँ, पकड़ा गया हूँ <br> औचक, बार-बार। <br> देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा: <br> पर जो दूसरा होता है—स्वयं मैं— <br> सदा मैंने यही पाया है कि वह <br> तुम हो: <br> कि जो-जो सुन पड़ी है साँस, <br> तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है: <br> जो धड़कन ह्रदय की <br> चेतना में फूट आई है हठीली <br> नए अंकुर-सी— <br> तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है। <br> <br>
यह लो <br> अभी फिर सुनने लगा मैं <br> साँस—अभी कुछ गरमाने लगी-सी— <br> ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा। <br> लो <br> पकड़ देता हूँ— <br> संभालो। <br><br>
साँस <br> स्पन्दन <br> ध्यान <br> और मेरा मुग्ध यह स्वीकार— <br> सब <br> (उस अजाने या अनाम देवता के बाद) <br>
तुम्हारे हैं।
</poem>
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