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जब पपीहे ने पुकारा-- मुझे दीखा--
दो पँखुरियाँ झरीं गुलाब की, तकती पियासी
पिया-से ऊपर झुके उस फ़ूल को
ओठ ज्यों ओठों तले।
मुकुर मे देखा गया हो दृश्य पानीदार आँखों के।
हँस दिया मन दर्द से--
’ओ मूढ! तूने अब तलक कुछ नहीं सीखा।’
इलाहाबाद
१ अगस्त, १९४८
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