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उम्मीद / अरुण कमल

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|रचनाकार=अरुण कमल
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आज तक मैं यह समझ नहीं पाया
कि हर साल बाढ़ में पड़ने के बाद भी
लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते ?
आज तक मैं यह समझ नहीं पाया<br>कि हर साल बाढ़ समुद्र में पड़ने के बाद भी<br>आता है तूफान तटवर्त्ती सारी बस्तियों को पोंछता :::वापस लौट जाता है और दूसरे ही दिन तट पर फिर :::बस जाते हैं गाँव- लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं चले जाते ये लोग कहीं और ?<br><br>
समुद्र में आता हर साल पड़ता है तूफान<br>मुआर तटवर्त्ती सारी बस्तियों को पोंछता <br>हरियरी की खोज में चलते हुए गौवों के खुर :::वापस लौट जाता है<br>धरती की फाँट में फँस-फँस जाते हैं और दूसरे ही दिन तट पर फिर<br>भी कौन इंतजार में आदमी :::बस जाते हैं गाँव-<br>क्यों नहीं चले जाते ये लोग कहीं और बैठा रहता है द्वार पर ?<br><br>
हर साल पड़ता है मुआर<br>कल भी आयेगी बाढ़ हरियरी की खोज में चलते हुए गौवों के खुर<br>धरती की फाँट में फँस-फँस जाते हैं<br>फिर कल भी कौन इंतजार में आदमी<br>आयेगा तूफान :::बैठा रहता है द्वार पर ?<br><br>कल भी पड़ेगा अकाल
कल भी आयेगी बाढ़<br>कल भी आयेगा तूफान<br>कल भी पड़ेगा अकाल<br><br> आज तक मैं समझ नहीं पाया<br>कि जब वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं होता<br>झड़ चुके होते हैं सारे पत्ते<br>तो सूर्य डूबते-डूबते<br>बहुत दूर से चीत्कार करता<br>पंख पटकता<br>लौटता है पक्षियों का एक दल<br>उसी ठूँठ वृक्ष के घोंसलों में<br>क्यों ? आज तक मैं समझ नहीं पाया।<br/poem>
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