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यात्रा / अरुण कमल

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|संग्रह = अपनी केवल धार / अरुण कमल
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रात के अँधेरे में दौड़ती जाती है पंजाब मेल
 
खिड़कियों से छुट-छुटकर गिरते हैं रोशनी के पट्टे
 
हवाएँ लौह झंझरिया-सी बजतीं ।
 
तलहथियों की आड़ में बग़लगीर मुसाफ़िर ने
 
सुलगाई माचिस
 
और उघारती गई लौ चेहरे के अनगिनत रहस्य--
 
कलकत्ते के कारखाने में बहाल
 
जलन्धर का एक मज़दूर
 
जा रहा है वापस फिर काम पर,
 
छूट गया है मुल्क बहुत दूर
 
बस तलवों में बाकी है
 
थोड़ी-सी धूल पंजाब की ।
 
दौड़ती जाती है पंजाब मेल--
 
पच्छिम से पूरब, पच्छिम से पूरब ।
 
"पंजाब तो बहुत ख़ुशहाल है, निहाल सिंह ?
 
सुनते हैं लोग वहाँ दूध और मट्ठे से तर हैं,
 
निहाल सिंह ?
 
फिर तुम क्यों जाते हो पश्चिम बंगाल,
 
बोलो, निहाल सिंह ?
 
" कौन नहीं चाहता जहाँ जिस ज़मीन उगे
 
मिट्टी बन जाए वहीं,
 
पर दोमट नहीं, तपता हुआ रेत ही है घर
 
तरबूज का,
 
जहाँ निभे ज़िन्दगी वही घर वही गाँव
 
फैलता जाता है धुँआ
 
लोहे की छातियों को धोता जाता है धुँआ,
 
खिड़कियों से झाँकता है पंजाबी मज़दूर
 
दूर अंधकार गहन गसा अंधकार
 
कहीं-कहीं बसे रोशनियों के परिवार
 
और यहाँ पंजाबियों से भरा हुआ डब्बा
 
पंजाबी मर्द, पंजाबी लड़कियाँ,औरतें, बच्चे
 
सब के सब जा रहे हैं वापस फिर काम पर,
 
ये परिवार मज़दूरों के
 
जूट कारखानों के लोह कारखानों के
 
कोई नहीं जानता कब बन्द हो जाएँगी कौन-सी मिलें
 
किनकी होगी छँटनी, किनकी कटेंगी तनखाहें,
 
सब रह गए थे घर पर दो-एक दिन फ़ाजिल ।
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