|संग्रह = अपनी केवल धार / अरुण कमल
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
धीरे धीरे उतरी है बाढ़
फिर उभरी आ रही हैं मेड़ें
खुले आ रहे हैं खेत घर द्वार
फिर से मसूड़ों में उग रही है दाँत की पाँत ।
दह गए थे धान के खेत
घरों में भरा था बाढ़ का पानी
यहाँ से वहाँ तक बस बची थी पाँक
पता नहीं कौन-सी कोख में
बचा हुआ जीवन
फिर से फेंकता है कंछा
फिर से अपनी ज़मीन पर लौट रहे हैं लोग-बाग
लौट रहे हैं पशु-पक्षी
लौट रहा है सूर्य
लौटा आ रहा है सारा संसार
इस प्रलय के बाद ।
</poem>