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अतृप्ति / महादेवी वर्मा
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14:43, 5 नवम्बर 2009
यह चिर अतृप्ति हो जीवन
चिर तृष्णा हो मिट जाना!
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गूँथे विषाद के मोती
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चाँदी की स्मित के डोरे;
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हों मेरे लक्ष्य-क्षितिज की
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आलोक तिमिर दो छोरें।
</poem>
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