|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
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वह जा रहा है
सड़क पर
एक आदमी
अपनी जेब से निकालकर बीड़ी सुलगाता हुआ
धूप में–
इतिहास के अंधेरे
चिड़ियों के शोर
पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर
वह आदमी ...
वह जा रहा है<br>सड़क बिजली के तारों पर<br>बैठे पक्षीएक आदमी<br>उसे देखते हैं या नहीं – कहना मुश्किल हैअपनी जेब से निकालकर हालांकि हवा उसकी बीड़ी सुलगाता हुआ<br>धूप में–<br>इतिहास के अंधेरे<br>चिड़ियों के शोर<br>पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर<br>धुएं कोउड़ाकर ले जा रही है जहां भी वह आदमी ले जा सकती है ....<br>
बिजली के तारों पर बैठे पक्षी<br>वह आदमीउसे देखते हैं या नहीं – कहना मुश्किल सड़क पर जा रहा है<br>हालांकि हवा उसकी बीड़ी के धुएं अपनी ज़िंदगी का दुख–सुख लिएऔर ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने परकिसी को<br>फ़र्क नहीं पड़ताउड़ाकर ले जा रही है जहां भी वह ले जा सकती है ....<br>और कोई नहीं देखता उसेन देवता¸ न आकाश और न हीसंसार की चिंता करने वाले लोग
वह आदमी<br>सड़क पर जा रहा है<br>अपनी ज़िंदगी का दुख–सुख लिए<br>ज्ौसे शब्दकोष सेऔर ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने पर<br>किसी को फ़र्क नहीं पड़ता<br>और कोई नहीं देखता उसे<br>न देवता¸ न आकाश और न ही<br>एक शब्द जा रहा हैसंसार लोप की चिंता करने वाले लोग<br>ओर ....
वह आदमी जा रहा और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है<br>ज्ौसे शब्दकोष से<br>और न ही उसका इस तरह नामहीनएक शब्द जा रहा है<br>लोप की ओर ओझल होना ......<br>
और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है<br>और न ही उसका इस तरह नामहीन<br>ओझल होना ......<br> कल जब शब्द नहीं होगा<br>और न ही यह आदमी<br>तब थोड़ी–सी जगह होगी<br>खाली–सी<br>पर अनदेखी<br>और एक और आदमी<br>उसे रौंदता हुआ चला जाएगा।<br/poem>