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हिरनों का दुख / त्रिलोचन

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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>20वीं सदी में
दो चीज़ें खास थीं--जंगल और जंगल से प्राप्त ढेर सारी
उपयोगी चीज़ें।

21वीं सदी में जंगल कटते कटते कट चले। जब
जंगल ही न रहे तब जंगल से मिलने वाली उपयोगी चीजें
कहाँ से मिलेंगी।

हिरनों की अनेक जातियाँ लोगों के पेट में समा चलीं।
हिरन सुंदरता के उपमान थे।

हिरन के दुश्मन जंगल में ही कम न थे। शेर, बाघ, तेंदुए,
भेड़िये तो थे ही, आदमी इन सब से बढ़ चढ़ कर है।

जंगल की कटाई में भी आदमी का हाथ है। पेड़ ही तो
जंगल है। यह जंगल ही हिरनों की बस्ती है। आदमी के हाँथ
में इतने हथियार हैं कि जान बचाने के लिये बेचारे हिरन
कहाँ जायँ। जब जंगल ही न रहेगा तब उस के भरोसे रहने
वाले कहाँ और कैसे रहेंगे।

4.11.2002</poem>
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