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वसंतागम / प्रभाकर माचवे

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[[Category:प्रभाकर माचवे]]
[[Category:कविताएँ]]
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|लेखक=प्रभाकर माचवे
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गा रे गा हरवाहे दिल चाहे वही तान<br>
::खेतों में पका धान<br>
मंजरियों में फैला आमों का गन्ध ध्यान<br>
आज बने हैं कल के ज्यों निशान,<br>
फूलों में फलने के हैं प्रमाण<br>
खेतिहर लड़की की भोली सी आंखों में, निम्बुओं की फांकों में <br>
मुस्काता अज्ञान हंसता है सब जहान<br>
::खेतों में पका धान<br>
मधुऋतु रानी महान<br>
मानिनी, वसंती रंग चुनरी झलके जिसकी,<br>
ढ़लके आंचल धानी लहरा सा<br>
आंखों में आकर्षण भी खासा<br>
युग युग का प्याला सा छलके दिलासा जहां,<br>
उतरी उन सरसों के खेतों पर मायाविनी<br>
हल्के – हल्के – हल्के <br>
फूल में छिपे निशान हैं फल के।<br>
उतरी वासन्तिका,<br>
तहलका–सा छाया तरू दुनिया में, छुटा भान,<br>
स्वागत में कोकिल का पिण्डुकी का जुटा गान।<br>
'आशा ही आशा है्'<br>
आज अनिबर्न्ध, उष्ण, अरूण प्रेम परिभाषा<br>
पल्लव की पल्लव से सुरभिमय यही भाषा—<br>
'आशा ही आशा है . . .'<br>
वासंती की दिगन्त–रिनिनिनमयि शिंजनियां,<br>
पड़ती जो भनक कान,<br>
परिवर्तित लक्ष लक्ष श्रुतियों में रोम रोम<br>
पंखिल हैं पंच प्राण<br>
गा रे गा हरवाहे, छेड़ मन चाहे राग<br>
::खेतों में मचा फाग।<br><br>