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उलझन / महादेवी वर्मा
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17:31, 9 नवम्बर 2009
:::जिसमें उनकी छाया भी,
:::मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ।
वे चुपके से मानस में,
आ छिपते उच्छवासें बन;
जिसमें उनको सांसो में,
देखूँ पर रोक न पाऊँ।
:::वे स्मृति बनकर मानस में,
:::खटका करते हैं निशिदिन;
:::उनकी इस निष्ठुरता को,
:::जिसमें मैं भूल न जाऊँ।
</poem>
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