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एक अलग-सा मंगलवार / उदय प्रकाश

168 bytes removed, 17:30, 10 नवम्बर 2009
|रचनाकार=उदयप्रकाश
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<poem>
वह एक कोई भी दोपहर हो सकती थी
कोई-सा भी एक मंगलवार
जिसमें कोई-सा भी तीन बज सकता था
वह एक कोई भी दोपहर हो सकती थी<br>कोई-सा भी एक मंगलवार<br>ऐसा कुछ जिसमें कोईयह जीवन यों ही-सा भी तीन बज सकता था<br><br>कुछ होता
एक कोई-सा पर ऐसा कुछ<br>जिसमें यह जीवन यों ही-सा कुछ होता<br><br>होना नहीं था
एक छांह जैसी कुछ जो मेज़ के ऊपर कांप रही थी थोड़ी-सी कटी-फटी धूप, जो चेहरे पर ऐसा होना नहीं था<br><br>गिरती थी पसीने की कुछ बूंदे जो ओस बनती जाती थीं वह एक नन्हीं-सी लड़की आकाश से गिरती एक पत्ती से छू जाने से खुद को बार-बार किसी कदर बचा रही थी
एक छांह जैसी कुछ जो मेज़ के ऊपर कांप रही हथेली थी<br>थोड़ी-सी कटी-फटी धूप, जो चेहरे जिसने गिलास मेज़ पर गिरती थी<br>रख दिया था पसीने और किसी दूसरी हथेली की कुछ बूंदे जो ओस बनती जाती थीं<br>वह एक नन्हीं-सी लड़की<br>आकाश से गिरती एक पत्ती से छू जाने से खुद को बार-बार<br>किसी कदर बचा रही गोद में बैठने की ज़िद में थी<br><br>
एक हथेली थी, जिसने गिलास मेज़ पर रख दिया था<br>चेहरा वह नन्हा-सा कांच का पारदर्शी और किसी दूसरी हथेली की गोद ओस में बैठने की ज़िद भीगा, जिसके पार एक हंसी जल जैसी बे-हद आकांक्षाओं में थी<br><br>लिपटी
चेहरा वह नन्हा-सा कांच का पारदर्शी<br>ओस में भीगा,<br>जिसके पार एक हंसी जल जैसी<br>बे-हद आकांक्षाओं में लिपटी<br><br>चेहरा तुम्हारा था
वह चेहरा तुम्हारा था<br><br>एक आंख थी वहां उस नन्हे-से चेहरे में मेज़ की दूसरी तरफ़ या मेरी आत्मा के अतल में किसी नक्षत्र की टकटकी हो जिस तरह उस मंगलवार में जिसमें बहुत मुष्किल से थोड़ी-सी छांह थी
एक आंख थी वहां<br>उस नन्हे-दिन कुछ अलग तरह से चेहरे तीन बजा इस शताब्दी में<br>मेज़ की दूसरी तरफ़ या मेरी आत्मा के अतल में<br>किसी नक्षत्र की टकटकी हो जिस जिसमें यह जीवन मेरा था, जो पहले कभी जिया नहीं गया था इस तरह<br>उस मंगलवार जिसमें होठ थे हमारे जिन्हें कुछ कहने में जिसमें बहुत मुष्किल से थोड़ी-सी छांह थी<br><br>सब कुछ छुपाना था
उस दिन कुछ वह एक बिलकुल अलग तरह -सी दोपहर जिसमें अब तक के जाने गए रंगों से तीन बजा इस शताब्दी में<br>अलग रंग की कोई धूप थी एक कोई बिल्कुल दूसरा-सा मंगलवार जिसमें यह जीवन मेरा था, जो पहले कभी जिया नहीं गया था इस तरह<br>पहले जैसा जिसमें होठ थे हमारे जिन्हें कुछ कहने में सब कुछ छुपाना पहला तीन बजा था<br><br>
वह और फिर एक बिलकुल अलग-सी दोपहर<br>जिसमें अब तक आध मिनट और कुछ सेकेंड के जाने गए रंगों से अलग रंग बीतने के बाद अगस्त की कोई धूप थी<br>उमस में माथे पर बनती ओस की बूंदों को मुटि्ठयों में भींचे एक कोई बिल्कुल दूसरा-सा मंगलवार<br>सफ़ेद बादल के छोटे से टुकड़े से पोंछते हुए जिसमें कभी नहीं पहले जैसा<br>पहला तीन बजा तुमने कहा था<br><br>तिनका हो जा। तिनका हुआ ।
और फिर एक-आध मिनट और कुछ सेकेंड के बीतने के बाद<br>अगस्त की उमस में माथे पर बनती ओस की बूंदों को<br>मुटि्ठयों में भींचे एक सफ़ेद बादल के छोटे से टुकड़े से पोंछते हुए<br>तुमने कहा था<br>तिनका हो जा।<br>तिनका हुआ ।<br><br> पानी हो जा ।<br>पानी हुआ ।<br><br>
घास हो जा ।
घास हुई ।<br><br>
तुम हो जाओ ।<br>मैं हुआ ।<br><br>
अगस्त हो जा । मंगलवार हो जा । दोपहर हो जा ।<br><br>
तीन बज ।<br><br>
इस तरह अगस्त के उस मंगलवार को तीन बज कर एकाध मिनट<br>और कुछ सेकेंड पर<br>हमने सृष्टि की रचना की<br><br>
ईश्वर क्या तुम भी डरे थे इस तरह उस दिन<br>
जिस तरह हम किन्हीं परिंदों-सा ?
</poem>
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