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|रचनाकार=नोमान शौक़
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मैं नहीं चाहता
कोई झरने के संगीत सा
मेरी हर तान सुनता रहे
एक ऊंची ऊँची पहाड़ी प' बैठा हुआ
सिर को धुनता रहे।
मैं अब
झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूँ
क़स्ब:-क़स्बा -शहर को एक गहरे समुन्दरमें ग़र्क़ाब करने के दर पै पे हूँ।
मैं नहीं चाहता
इक ज़माने तलक
अपने जैसों के कांधों काँधों पे'
सिर रखके रोते रहे
मैं भी और मेरे अजदाद भी
मैं नहीं चाहता
गालियां गालियाँ दूँ किसी को
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
ज़रुरत नहीं।
</poem>
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