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<poem>रात आधी , खींच कर मेरी हथेली<br>एक उंगली से लिखा था 'प्यार ' तुमने।<br><br>
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में<br>और चारों ओर दुनिया सो रही थी।<br>थी,तारिकाऐं तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं<br>जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।<br>थी, मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे<br>:::अधजगा -सा और अधसोया हुआ सा।<br>सा,:::रात आधी खींच कर मेरी हथेली<br>रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार ' तुमने।<br><br>
एक बिजली छू गई , सहसा जगा मैं<br>, कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।<br>में,इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू<br>बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।<br>में,:::मैं लगा दूँ आग इस संसार में<br>है :::प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।<br>कातर, :::जानती हो , उस समय क्या कर गुज़रने<br>:::के लिए था कर दिया तैयार तुमने!<br>रात आधी , खींच कर मेरी हथेली<br>एक उंगली से लिखा था 'प्यार ' तुमने।<br><br>
प्रात ही की ओर को है रात चलती<br>औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।<br>मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी<br>खूबियों के साथ परदे को उठाता।<br>एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था<br>और मैंने था उतारा एक चेहरा।<br>वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने<br>पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।<br>रात आधी खींच कर मेरी हथेली<br>एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।<br><br>
और उतने फ़ासले पर आज तक<br>सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।<br>फिर न आया वक्त वैसा<br>फिर न मौका उस तरह का<br>फिर न लौटा चाँद निर्मम।<br>और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।<br>क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?<br>बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो<br>रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।<br>रात आधी खींच कर मेरी हथेली<br>एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। <br><br/poem>
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