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मौसम की चोट / उर्मिलेश

17 bytes added, 15:10, 13 नवम्बर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=उर्मिलेश
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चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
 
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।
 
काम करते नहीं बच्चे भी बिना रिश्वत के।
 
अपना घर लगने लगा अब तो कचहरी हमको।।
 
अब तो बहिनें भी ग़रीबी में हमें भूल गईं।
 
राखियाँ कौन भला भेजे सुनहरी हमको।।
 
हमने पढ़-लिखके फ़कत इतना हुनर सीखा है।
 
अपनी माँ भी नज़र आने लगी महरी हमको।।
 
होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
 
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।
 
डिगरियाँ देखके अपने ही सगे भाई की।
 
ये व्यवस्था भी नज़र आती है बहरी हमको।।
 
धीरे-धीरे जो कुतरते हैं हमारे दिल को।
 
याद उन रिश्तों की लगती है गिलहरी हमको।।
</poem>
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