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|संग्रह=है तो है / दीप्ति नवल
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वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगावत बग़ावत है तो है  सच को मैने मैंने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है
 कब कहा मैनें मैंने कि वो मिल जाये मुझको, मै मैं उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है
 जल गया परवाना तो शम्मा की इसमे इसमें क्या खताख़तारात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है दोस्त बन कर दुष्मनों दुश्मनों- सा वो सताता है मुझेफ़िर फिर भी उस जालिम ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है 
दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में कुर्बत क़ुर्बत<ref>सामीप्य</ref> है तो है  </poem>{{KKMeaning}}