{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह=धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?
::यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।
[2]
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
::नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?
[3]
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,
::किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।
[4]
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,
::शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?
[5]
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?
::वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।
[6]
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,
::उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?
[7]
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,
::गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।
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