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11:59, 24 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=
}}
<poem>जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं
जैसे शरत् के बादल
सुबह हल्की बारिश हुई है
ठंडी उमस
पत्ते हिलते
पानी के छींटे कण कण
धूप मद्धिम
चल रहे दो किशोर
नंगे पैरों के तलवे
नर्म
दबती घास ताप से काँपती
संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं
या बादलों के बीच पतंगें
इकट्ठे हाथ
धूप में कभी हँसते कभी गंभीर
एक की आँखें चंचल
ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े
दूसरे की आँखों में करुणा
जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
उन्हें नहीं पता
इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को
गीतों में सँवार रहे हैं
कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें
फिलहाल उनके चलते पैर
आपस की करीबी भोग रहे हैं
पेड़ों के पत्ते
हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं
शरत् की धूप ले रही है गर्मी
उनकी साँसों से
आश्वस्त हैं जनप्राणी
भले दिनों की आशा में
इंतजार में हैं
आश्विन के आगामी पागल दिन।
</poem>