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राजधानी में / ऋतुराज

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|रचनाकार=ॠतुराज
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{{KKCatKavita}}<poem>अचानक सब कुछ हिलता हुआ थम गया है<br>भव्य अश्वमेघ के संस्कार में<br>घोड़ा ही बैठ गया पसरकर<br>अब कहीं जाने से क्या लाभ ?<br><br>
तुम धरती स्वीकार करते हो<br>विजित करते हो जनपद पर जनपद<br>लेकिन अज्ञान,निर्धनता और बीमारी के ही तो राजा हो<br><br>
लौट रही हैं सुहागिन स्त्रियाँ<br>गीत नहीं कोई किस्सा मज़ाक सुना रही हैं-<br>राजा थक गए हैं<br>उनका घोड़ा बूढा दार्शनिक हो चला अब<br>उन्हें सिर्फ़ राजधानी के परकोटे में ही<br>अपना चाबुक फटकारते हुए घूमना चाहिए<br><br>
राजधानी में सब कुछ उपलब्ध है<br>बुढापे में सुंदरियाँ<br>होटलों की अंतर्महाद्वीपीय परोसदारियाँ<br><br>
राजधानी में खानसामे तक सुनाते हैं<br>
रसोई में महायुद्धों की चटपटी
</poem>
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