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[[Category:कविता]]{{KKCatKavita}}
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मैं तुझे फ़िर मिलूंगीफिर मिलूँगीकहाँ किस तरह पता नहीनहींशायद तेरी तख्यिल तेरे तख़्य्युल की चिंगारी बनतेरे केनवास पर उतरुंगीउतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश ख़ामोश तुझे देखती रहूंगीरहूँगी या फ़िर फिर सूरज कि लौ बन करतेरे रंगो में घुलती रहूंगीरहूँगीया रंगो कि बाहों बाँहों में बैठ करतेरे केनवास से लिपट जाउंगीजाउँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगीज़रुर मिलूँगी
या फ़िर फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदेंबूँदेंतेरे बदन पर मलूंगीमलूँगीऔर एक ठंडक - सी बन करतेरे सीने से लगूंगीलगूँगी
मैं और कुछ नही नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जी जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म खतम ख़त्म होता हैतो सब कुछ खत्म ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनुंगीचुनुँगीमैं तुझे फ़िर फिर मिलूंगी !!
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