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अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ / परवीन शाकिर
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01:42, 27 नवम्बर 2009
<poem>
अक़्स-ए-ख़ुशबू
हूँ, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद पर
दरवाज़े
से
दरवाज़ेसे
झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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