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अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ / परवीन शाकिर
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01:44, 27 नवम्बर 2009
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स
गुजरता
गुज़रता
भी नहींअब किस उम्मीद पे
दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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