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09:11, 1 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अमीर मीनाई
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}}
[[Category:ग़ज़ल]]<poem>कैदी जो था दिल से खरीदर हो गया.
युसुफ को कैद खाना भी बाज़ार हो गया.
उल्टा वो मेरी रुहसे बेझार हो गया.
में नामे हूर लेके गुनहगार हो गया.
ख्वाहिश जो रोशनीकी हुइ मुझको हिज्रमें,
जुगनु चमकके शम्ए शबे तार हो गया.
एहसान किसीका एस तने लागिर से क्या उठे
सो मन का बोझ सायए दिवार हो गया.
बे हिला इस मसीह तलक था गुज़र महाल,
कासिद समज़े कि राहमें बीमार हो गया.
जिसमें राहरव ने राहमें देखा तेरा जमाल
आयना दार पूश्ते बदिवार हो गया.
क्यों करें तरके उल्फत मझ्गां करुं अमीर
मंसूर चढके दार पे सरदार हो गया.
</poem>