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:::(१)
वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’
ऊपर नीला आकाश और नीचे सोना-माटी लेटी!
मैं करवट लेती--ढह जाते हैं दुर्ग, चीन की दीवारें!
हाँ, बुद्धिजीव आदर्शमुग्ध मानव भी मेरी ही कृति है,
पैग़म्बर और सिकन्दर का मुझसे अथ है, मुझमें इति है!
 
मेरे कन-कन पर उडुगन भी वारा करते हिमकण-मोती,
जिनकी सतरंगी गोदी में सिर धर सूरजकिरणें सोतीं!
 
मैं मर्त्यलोक की मिट्टी हूँ, मैं सूर्यलोक का एक अंश;
आती हैं जिस घर से किरणें, है मेरा भी तो वही वंश!’
 
:::(२)
</poem>
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