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14:29, 6 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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आफ़िस के बाहर भी
आफ़िस के भीतर के आदमी से ज़्यादा ताक़तवर है वह
यहाँ तक कि आक्रामक भी
डीजल की चिंता है उसे ,चिंता है बिजली की
पानी के लिए बेचैन है वह बेपानी का पुश्तैनी तानाशाह
देखता हुआ भूत-भविष्य-वर्तमान के क्रियापदों की गड़बड़ी
बेचैन है कि खाड़ी का युद्ध उसके बिना लड़ा गया
बेचैन है की आतंकवाद बढ़ गया उसके बिना
बेचैन है कि दंगों में सीधी शिरकत नहीं रही उसकी
दुखी है कि पिछड़ा जन उसका अब नहीं रहा
नहीं रहा उसका अल्पसंख्यक समुदाय
केवल सवर्ण भी नहीं रहे अब उसके
भावी मतयुद्ध के विनिर्णय से डरा हुआ
बाहर से हँसता है भीतर-भीतर भयभीत
घर फूट जाने की आशंका से विचलित
आफ़िस के भीतर के आदमी से ज़्यादा ताक़तवर है वह
आफ़िस के बाहर भी।
रचनाकाल : 23.02.1991
'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''
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