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::गाऊँ भी तो क्या गाऊँ?
मैं रो गा कर अब कब तक मन बहलाऊँ?
::यह लाइलाज रोगी मन है,::यह क्षुद्र पात्र-सा जीवन है,
क्या मैं, मानव मैं इनमें सिमट समाऊँ?
::इस क्षीण रुधिर की धारा का,::क्या बह सकना ही ध्येय बने,::धाराओं का गंगासागर—संगम-::समाज या—गेय बने?
बन क्षुद्र रहूँ या मैं विशाल बन जाऊँ?
::बुन बुन उघेड़ता रहूँ सदा::इस धूप-छाँह की जाली को?::क्या ओठों पर लाऊँ हरदम::सब सब की जूठी प्याली को?
जाग्रत जीवित हो जिऊँ या कि मर जाऊँ?
::है एक ओर इच्छाओं का::वासनाजनित छायान्धकार,::औ दूर दूसरी ओर दीखता::संयम का अवरुद्ध द्वार!
मैं श्रेय प्रेय में से किसको अपनाऊँ?
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