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मेरा मन / नरेन्द्र शर्मा

15 bytes added, 07:00, 8 दिसम्बर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
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मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!
 
 
</poem>
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