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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पूरे हुए पचास वर्ष पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया<br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शलभ श्रीराम सिंहशीन काफ़ निज़ाम]]</td>
</tr>
</table>
 
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
'''आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर एक कविता'''नाश्ते के लिए भुनी हुई स्त्री का गोश्त लाया जाए हाथ धोने के लिए अगवा किये गए किसी बच्चे की खोपड़ी में लाया जाए ठण्डा पानी शाल के बदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए महामहिम परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं  भ्रष्ट्राचार के पचास वर्ष पूरे हुएबलात्कार और व्यभिचार के पचास वर्षपूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के  मानवता के सारे प्रतिमान ढहाए गएबहाए गए घडियाली आँसूं जार-जारचढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के स्वरभगवानों के पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर जलाए और गिराए गए  जी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरतीवादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटेगोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के खेलमेल बरकरार रखने के लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई कानारा लगते हुए 'भाई-भाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष  सवाल उठाते-उठाते -बोलियाँ नंगी हो गई हैं भाषाएँ छिनाल मनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों सेफिर भी कुछ लोगों के लिएबँट गया 'मचलती और झूमती हुई आ रही है आज़ादी 'बर्बादी का ऐसा बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गया है इतिहास इन्सान अपने आप में ? इस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपनेबिस्मिलों की तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के जज्बातसुभाषों की ललकारें, गाँधीयों के सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,हिंसा और हड़प के पैरोकारों का ध्यान नहीं कितना सिमट गया उधरकान नहीं गया किसी का दुर्घटना के इतनें कड़े कर्कश नाद पर  भविष्य के अन्धेरों से भयभीत -रोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश आज़ादी के पहले की बात और थी, आज़ादी के बाद की और है वह गुलामी का दौर था ,यह गुलामों का दौर है वनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीचघोटा गया नदियों का गलापहाड़ों की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ पशुओं की भूख तक भुनाई जा रही है शान सेईमान के गले पर पाँव रख कर की जा रही है बेईमानीजान और जहान से बड़ा हो गया है पैसाकाहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ? ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं यहाँझकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधीपूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की जागीर हो जैसे
चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति काअब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं रिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओरमुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया
और इस देश का परधान मन्तरी मजबूर हैमजबूर है हमारा सब हम मुन्तज़िर थे शाम से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरीसूरज के, दोस्तो! लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया
एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के पीछे सरकाया जा रहा हैदरकाया जा रहा है देश का भूगोल अपनी इच्छा भरदराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैंवर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष के बदलेमूर्तियों की आड़ गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में जबरजोत की जंग जारी हैएक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर जाएँ किधर कि शहर से कन्याकुमारी तक भी जी उचट गया
उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहा है देशकिससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को जडी-बूटियों तक पर नहीं रह फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया उसका अधिकारनीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की चौखट परयह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिए
पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई हैगिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती सोने की चिड़िया की जान साँसत में हैआफ़त में है कविता का एकसैलाब-एक शब्द भ्रष्टाचार -बलात्कार नूर में जो रहा मुझ से दूर-व्यभिचार -हत्यादूर और हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुएवो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गयापरेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैंमहामहिम रचनाकाल : 14-15 अगस्त 1997 , मध्य रात्रि ,विदिशा '''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''</pre>
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