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{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
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<poem>
बचपन की मुस्कुराहटों पर
रखे जा रहे हैं पत्थर
गिरवी रखे जा रहे हैं जवानी के सपने
बुढ़ापे की उम्मीदों को धोखा दिया जा रहा है
दिन-रात।

तकनीकी नाकेबंदी की जकड़ में है गंगा
यमुना के गले में उग रही है कंकड़ों की फ़सल
समुद्र को अलविदा कहने पर
मज़बूर की जा रही है नर्मदा।

गोमुख का भूगोल टेढ़ा हो रहा है
टेढ़ा हो रहा है हरि की पैड़ी का भूगोल
हरिद्वार का भूगोल टेढ़ा हो रहा है।

मेरठ जाने का समय है यह
समय है कानपुर, प्रयाग, पटना और कलकत्ता जाने का।
दिल्ली जाने का समय है यह
सरस्वती-पथ का सरण करने वाली है गंगा।
</poem>