::स्वर्ग की सुषमा जब साभार
::धरा पर करती थी अभिसार!
::प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
::(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
::नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
:::ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
::कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
::दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
::अपरिचित जराम-रण-भ्रू-पात!
::(२)
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहां वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दु:ख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा मरण भ्रू-पात।
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
'''रचनाकाल: जनवरी १९१८१९२४'''
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