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भूख़ की लतरें
रौंदने लगे जिस्मों को
::::ज्यों अंधेरा
कॉकटेल,मद,प्यालियों
झलकते रंगों के बीच
और आदमी से आदमी तक खिंचे
रबर क्षणों की
::::औसत लम्बाई
एक कुरेद है भूख
जिस्म में जैसे जज़्ब होती मछली
काँच में उतरती आँख का फ़रेब
::::या गिरिफ़्त
है मग़र वह भी तो भूख़
सीली दीवारों पर
घुटनों के बल कच्चे फर्शों
::::रेंगती अपाहिज
छ्छूँदर की तरह
मुहानों पर चालबाज़ गोटें
साँप-सीढ़ियों के करतब
::::नमुराद
जूझता भेदों से असफल
गाँठे हैं असहनीय
::बस्तियाँ ये
छातियाँ धरती की
::धँसी हुई
अँधा पाताल ज्यों कपाल का
आहत भेड़-मुख
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