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पीठ करते हुए / विजय कुमार देव

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भोंकते हैं शब्द तेज़/ हथियार से तेज़
फिर भी,
न भोंथरे होते हैं- शब्द / न हथियार / न आदमी |आदमी।
हम जान पाते हैं
चौंकता है शरीर/बोलती है आँखे
सुनने लगती है नाक
और/ सूंघने लगते है कान|कान।
हम समझते हैं
पेट से न सही गले से
भर दो गला उनका
जो भूखे है सुनने को |
तुम्हारा
भूगोल बदलेगा |
ज़रूरी है बदलना
या फिर टैक्स लगाया जएगा
तुम्हारी एक सही हरकत
फना कर देगी-दुनिया की
सबसे हसीन ओर जिंदादिल कविता |
हम उसे बचाना चाहते हैं
पूरी ताकत लगाकर
अपनी उर्वरा
भोली-कविता ||कविता।
</poem>
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