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निंदिया / शैलेन्द्र

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|रचनाकार=शैलेन्द्र
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[[Category:गीत]]{{KKCatKavita}}{{KKCatGeet}}<poem>
पास देख अनजान अतिथि को--
 
दबे पांव दरवाज़े तक आ,
 
लौट गई निंदिया शर्मीली!
 
दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
 
कब आएं बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
 
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
 
शून्य रात की घड़ियां आधी
 
और झांक खिड़की से जब तब
 
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!
 
रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
 
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का
 
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
 
आजा निंदिया, अब तो आजा!
 
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!
 '''1945 में रचित</poem>
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