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सूनी कलाई… / भावना कुँअर

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|रचनाकार=भावना कुँअर
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एक दिन था..
 
मैं!
 
अपनी सूनी कलाई को
 
निरखता हुआ
 
तुम्हारी राह देख रहा था,
 
मगर तुम नहीं आईं,
 
सुबह का सूरज
 
अपनी शक्ल बदलकर
 
चाँद के रूप में आ खड़ा हुआ
 
मगर तुम फिर भी नहीं आईं,
 
अब तो उम्मीद ने
 
भी साथ छोड़ दिया था,
 
कैसे बीता था वो दिन
 
आज तक भी नहीं भुला पाया।
 
लेकिन आज और कल में
 
कितना बड़ा फर्क है
 
आज़ वही तुम
 
मेरे लिये आँसू बहा रही हो,
 
सिसकियाँ भर रही हो,
 
कहाँ थी तुम जब मैं
 
दर-ब-दर की ठोकरें खा रहा था
 
अपने जख्मी दिल को लिये
 
इक अदद
 
सहारा ढूँढ रहा था
 
मैं अकेला
 
चलता रहा काँटों पर
 
अपने खून से लथपथ
 
कदमों को घसीटता हुआ
 
पर किसी ने नहीं देखा मेरी ओर
 
तुमने भी नहीं
 
तुम ने भी तो सबकी तरह
 
अपनी आँखे बन्द कर लीं
 
आज़ कैसे खुली तुम्हारी आँखे?
 
आज़ क्यों आये इन आँखों में आँसू?
 
क्या ये आँसू पश्चाताप के हैं?
 
या फिर मेरी पद, प्रतिष्ठा देखकर
 
फिर से तुम्हारा मन
 
मेरी सूनी कलाई पर
 
राखी का धागा
 
बाँधने का कर आया?
 
क्या यही होतें हैं रिश्ते?
 
उलझ रहा हूँ
 
बस इन्हीं सवालों में
 
यहाँ अपने वतन से दूर होकर
 
जिनका जवाब भी मेरे पास नहीं है
 
अगर है तो आज़ भी वही सूनी कलाई…
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