|संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर
}}
{{KKCatKavita}}{{KKCatGeet}}<poem>सुप्त उर के तार फिर से<BR>प्राण ! आकर झनझना दो !<br><BR>
नभ-अवनि में शुभ्र फैली चांदनी,<br>मूक है खोयी हुई-सी यामिनी ; <BR> और कितनी तुम मनोहर कामिनी !<br>:आज तो बन्दी बनाकर<BR>:क्षणिक उन्मादी बनादो !<br><BR>
मद भरे अरुणाभ हैं सुन्दर अधर,<br>नैन हिरनी से कहीं निश्छल सरल,<br>देह ‘विद्युत, काँच, जल-सी’ श्वेत है,<br>डालियों-सी बाहु मांसल तव नवल,<br>:आज जीवन से भरा नव<BR>:गीत मीठा गुनगुना दो !<br><BR>
स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है,<br>हर दिशा से हो रही झंकार है,<br>विश्व को यह प्रेम री स्वीकार है,<br>:चिर-प्रतीक्षित-मधु-मिलन<BR>:त्योहार संगिनि ! अब मना लो !<br/poem>