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|संग्रह=संवर्त / महेन्द्र भटनागर
}}
चैराहा हो{{KKCatKavita}}<brpoem>चैराहा हो या सतराहा<br>किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं,<br>दिग्भ्रम होने का<br>भय मन पर आरूढ़ नहीं।<br><br>
माना<br>पथ से इतनी पहचान नहीं है,<br>मंज़िल तक हो आने का<br>परिज्ञान नहीं है,<br>पर,<br>लक्ष्य-दृष्टि है साफ़ अगर<br>तो पढ़ लेगी<br>पथ पर अंकित —<br>क्रोशों की संख्या,<br>उत्तर-दक्षिण<br>पूरब-पश्चिम<br>स्थित<br>नगरों के नाम सभी।<br>फिर —<br>चैराहों-सतराहों से<br>आगे बढ़ना<br>नहीं कठिन,<br>फिर —<br>चैराहों-सतराहों पर<br>होना नहीं मलिन।<br><br>
नाना मत,<br>नाना शासन-पद्धतियाँ,<br>अगणित राहें,<br>अगणित नारे-झण्डे,<br>अनगिनती<br>आपस में तीव्र विरोधी आवाजें,<br>पर,<br>यदि युग को पढ़ सकने की<br>क्षमता है,<br>यदि जन-मन की धड़कन से<br>निज अन्तर की समता है,<br>तो असमंजस का प्रश्न न होगा,<br>निष्ठा निर्मूल न होगी,<br>चैराहों-सतराहों के मोड़ों से<br>पथ भूल न होगी !<br/poem>
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