श्रद्धा जी! सामधेनी संग्रह की जिस कविता का नाम आपने बदला है वह वास्तव में "दीख" ही है, "दिख" नहीं। अतः मैं पुराने अवतरण को पूर्ववत कर रहा हूँ। सादर--[[धर्मेन्द्र कुमार सिंह]]
क्या करें श्रद्धा जी, कविता का प्रवाह बनाये रखने के लिए कई बार शब्दों को अपने हिसाब से तोड़ना-मोड़ना पड़ता है। "दिनकर" जी ने भी यही किया है। सादर--[[धर्मेन्द्र कुमार सिंह]]