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:मौन कब के हो चुके रण-तूर्य्य,
:डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य!
छा गया तम, आ गये तारे तिमिर को चीर,
आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति किये गम्भीर?
और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढाँक?
फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक?
चाँदनी घन में मिली है छा रही सब ओर,
साँझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर।
::मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश,
::श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास।
</poem>
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