वीर - बेटों की चिताएँ देख ज्वलित समक्ष,
रो रहीं माँएँ हजारों पीटती सिर - वक्ष।
हैं खुले नृप के हृदय के कान;
हैं खुले मन के नयन अम्लान।
सुन रहे हैं विह्वला की आह,
देखते हैं स्पष्ट शव का दाह।
:सुन रहे हैं भूप होकर व्यग्र,
:रो रहा कैसे कलिंग समग्र।
रो रही हैं वे कि जिनका जल गया श्रृंगार;
रो रहीं जिनका गया मिट फूलता संसार;
जल गई उम्मीद, जिनका जल गया है प्यार;
रो रहीं जिनका गया छिन एक ही आधार।
चुड़ियाँ दो एक की प्रतिगृह हुई हैं चूर,
पुँछ गया प्रति गेह से दो एक का सिन्दूर।
बुझ गया प्रतिगृह किसी की आँख का आलोक।
इस महा विध्वंस का दायी महीप अशोक।
:ध्यान में थे हो रहे आघात,
:कान ने सुनली मगर यह बात।
:नाम सुन अपना उसाँसें खींच,
:नाक, भौं, आँखें घृणा से मींच,
इस तरह बोले महीपति खिन्न
आप से ज्यों हो गये हों भिन्न:--
"विश्व में पापी महीप अशोक,
छीनता है आँख का आलोक।"
देह के दुर्द्घष पशु को मार,
ले चुके हैं देवता अवतार।
निन्द्य लगते पूर्वकृत सब काम,
सुन न सकते आज वे निज नाम।
अश्रु में घुल बह गया कुत्सित, निहीन, विवर्ण,
रह गया है शेष केवल तप्त, निर्मल स्वर्ण।
हूक - सी आकर गई कोई हृदय को तोड़,
ठेस से विष - भाण्ड को कोई गई है फोड़।
बह गया है अश्रु बनकर कालकूट ज्वलन्त,
जा रहा भरता दया के दूध से वेशन्त।
दूध अन्तर का सरल, अम्लान,
खिल रहा मुख - देश पर द्युतिमान।
किन्तु, हैं अब भी झनत्कृत तार,
बोलते हैं भूप बारम्बार--
"हाय रे गर्हित विजय - मद ऊन,
क्या किया मैंने! बहाया आदमी का खून!"
</poem>