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दिव को कंचन - सा गला करो भू का सिंगार।
वाणी, पर, अब तक विफल मुझे दे रही खेद,
टकराकर भी सकती न वज्र का हॄदय भेद।
जिनके हित मैंने कण्ठ फाड़कर किया नाद,
माधुरी जली मेरी, न जला उनका प्रमाद।
 
आखिर क्लीवों की देख धीरता गई छूट,
धरती पर मैंने छिड़क दिया विष कालकूट।
 
पर, सुनकर भी जग ने न सुनी प्रभु की पुकार,
समझा कि बोलता था मेरा कटु अहंकार।
 
हा, अहंकार! ब्रह्माण्ड - बीच अणु एक खर्व,
ऐसा क्या तत्व स्वकीय जिसे ले करूँ गर्व?
 
मैं रिक्त-हृदय बंसी, फूँकें तो उठे हूक,
दें अधर छुड़ा देवता कहीं तो रहूँ मूक।
 
जानें करना होगा कब तक यह तप कराल!
चलना होगा कब तक दुरध्व पर हॄदय वाल!
 
बन सेतु पड़ा रहना होगा छू युग्म देश,
कर सके इष्ट जिस पर चढ़ नवयुग में प्रवेश!
 
सुन रे मन, अस्फुट-सा कहता क्या महाकाश?
जलता है कोई द्रव्य, तभी खिलता प्रकाश!
 
तप से जीवन का जन्म, इसे तप रहा पाल,
है टिकी तपस्या पर विधि की रचना विशाल।
</poem>
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