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::'''राही'''
सूखी लकड़ी! क्यों पड़ी राह में
तो चुप रह या पथ से टल जा।
::'''बाँसुरी'''
बजता है समय अधीर पथिक,
या मुख जो आग उगलता है
आकर जड़ दे उस पर ताले।
 
दुनिया भर का संताप लिये
हर रोज हवाएँ आती हैं।
अधरों से मुझको लगा
व्यथा जाने किस-किसकी गाती हैं।
 
मैं काल-सर्प से ग्रसित, कभी
कुछ अपना भेद न गा सकती,
दर्दीली तान सुना दुनिया
का मन न कभी बहला सकती।
 
दर्दीली तान, अहा, जिसमें
कुछ याद कभी की बजती है,
मीठे सपने मँडराते हैं
मादक वेदना गरजती है।
 
धुँधली-सी है कुछ याद,
गाँव के पास कहीं कोई वन था;
दिन भर फूलों की छाँह-तले
खेलता एक मनमोहन था।
 
मैं उसके ओठों से लगकर
जानें किस धुन में गाती थी,
झोंपड़ियाँ दहक-दहक उठतीं
गृहिणी पागल बन जाती थी।
 
मुँह का तृण मुँह में धरे विकल
पशु भी तन्मय रह जाते थे,
चंचल समीर के दूत कुंज में
जहाँ - तहाँ थम जाते थे।
 
रसमयी युवतियाँ रोती थीं,
आँखों से आँसू झरते थे,
सब के मुख पर बेचैन,
विकल कुछ भाव दिखाई पड़ते थे।
 
मानो, छाती को चीर हॄदय
पल में कढ़ बाहर आयेगा,
मानो, फूलों की छाँह-तले
संसार अभी मिट जायेगा।
 
यह सुधा थी कि थी आग?
भेद कोई न समझ यह पाती थी,
मैं और तेज होकर बजती
जब वह बेबस हो जाती थी।
 
उफ री! अधीरता उस मुख की,
वह कहना उसका "रुको, रुको,
चूमे, यह ज्वाला शमित करो
मोहन! डाली से झुको, झुको।"
 
 
</poem>
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