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राही और बाँसुरी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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09:45, 7 जनवरी 2010
उफ री! अधीरता उस मुख की,
वह कहना उसका "रुको, रुको,
चूमे
चूमो
, यह ज्वाला शमित करो
मोहन! डाली से झुको, झुको।"
मैं बिकी समय के हाथ पथिक,
मुझ
पर
न रहा मेरा बस है।
है व्यर्थ पूछना बंसी में
कोई मादक, मीठा रस है?
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