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{{KKRachna
|रचनाकार=कुँअर बेचैन
|संग्रह=डॉ० कुंवर बैचेन के नवगीत / कुँअर बेचैन
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<poem>
दिवस खरीदे मजदूरी ने
मजबूरी ने रात
शाम हुई नीलाम थकन को
कुंठाओं को प्रात
जिंदगी अपनी नहीं रही ।
काली सड़कों पर पहरा है
अनजाने तम का
नभ में डरा डरा रहता है
चंदा पूनम का
नभ के उर में
चुभी कील-सी
तारों की बारात
कौन सी पीड़ा नहीं सही ?
जिंदगी अपनी नहीं रही।
रोज तीर सी चुभ जाती है
पहली सूर्य-किरन
सूरज
शेर बना फिरता है
मेरे प्राण हिरन
कर जाती है
धूप निगोड़िन
पल-पल पर आघात
जिंदगी आँसू बनी वही।
जिंदगी अपनी नहीं रही।
</poem>