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बनेंगी साँपिन / कुँअर बेचैन

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<poem>
बंद हैं मुट्ठी में
चंद सुर्ख-पंक्तियाँ
मुट्ठी के खुलते ही
धरती पर रेंगकर-बनेंगी साँपिन।
अपने ही आपमें
हम इतना डूबे
बदल गए अनजाने
सारे मंसूबे
बंद हैं मुट्ठी में
थोथी आसक्तियाँ
मुट्ठी के खुलते ही
सबको खा जाएगी पीड़ा डायन।
एक अदद गुलदस्ता
टूक-टूक बिखरा
झरी हुई पत्तियाँ
जाते जाते भी
धरती पर फेंक गईं
एक नया “फिकरा”-
बंद हैं मुट्ठी में
अनजानी शक्तियाँ
मुट्ठी के खुलते ही
खुद ही खुल जाएँगे-कैदी सब दिन।
</poem>