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<span class="upnishad_mantra">
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३- २२॥
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सुन अर्जुन ! तीनहूँ लोक मांहीं,
जद्यपि मम कछु कर्त्तव्य नांहीं.
कछु नैकैहूँ नाहीं मोहे दुर्लभ,
तद्यपि मैं करम करहूँ सबहीं
<span class="upnishad_mantra">यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३- २३॥</span>
यदि पार्थ! करम न मैं करिबौ,
व्यवहार जगत को कस हुइहै,
जग मोरे ही अनुसार करम कर,
करमन की विधि, गति जनिहैं
<span class="upnishad_mantra">उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३- २४॥</span>
यदि करम नाहीं मैं पार्थ करुँ,
तौ भ्रष्ट जगत सगरौ हुइहै,
अथ हेतु वर्ण संकरता कौ,
सगरी ही प्रजा हर्ता कहिहैं
<span class="upnishad_mantra">सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३- २५॥</span>
जस हे भारत! आसक्त मना ,
अज्ञानी, सकामी करम करैं.
तस ही ज्ञानी आसक्ति बिना,
बस, ज्ञान हेतु ही करम करैं
<span class="upnishad_mantra">न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३- २६॥</span>
यही ज्ञानिन कौ कर्तव्य महा,
जिन करमन में आसक्ति घनी.
तिन करम सों नाहीं विरक्त करैं,
सत करमन मांहीं बनावें धनी
<span class="upnishad_mantra">प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३- २७॥</span>
सब करम गुणन सों प्रकृति के,
ही यही जगती पर होवत हैं.
पर मूढ़ मना मोहित मानत,
मैं कर्ता मोसों होवत हैं
<span class="upnishad_mantra">तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३- २८॥</span>
गुन करम विभाग के तत्वन कौ,
तत्वज्ञ ही जानें महाबाहो!
गुन सगरे गुणन माहीं बरतत.
अथ नैकहूँ नाहीं विमोहित हो
<span class="upnishad_mantra">प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३- २९॥</span>
प्राकृतिक गुणन सों मोहित जन,
गुन करमन सों आसक्त नरे.
ज्ञानी जन मूढ़ विमूढ़न कौ,
नाहीं विचलित, न विरक्त करें
<span class="upnishad_mantra">मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३- ३०॥</span>
अथ अर्जुन! ध्यानानिष्ट मना,
सों करम करो पर करमन कौ,
आशा, ममता, संताप बिना.
ही सौप दे ब्रह्म के चरनन कौ
<span class="upnishad_mantra">यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३- ३१॥</span>
मति,शुद्ध,विमल,चित श्रद्धा मय,
सों युक्त जनान, सदा मोरे .
यहि मत अनुसार आचार-विचार,
तो करमन के छूतट फेरे
<span class="upnishad_mantra">यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम्।सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३- ३२॥</span>
जिन मूढ़न दृष्टि विकार धरै,
करै मोरे मत बर्ताव नाहीं,
वे ज्ञान विमोहित चित्त जना
कल्यान भ्रष्ट जानो ताहीं
<span class="upnishad_mantra">सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३- ३३॥</span>
सब प्राणी प्रकृति के वश ही
सब करम करैं सों कहा वश है?
ज्ञानिहूँ प्रकृतिवश करम करै,
हठ धरम कौ नैकु नहीं वश है
<span class="upnishad_mantra">इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३- ३४॥</span>
इन्द्रिय, इन्द्रिय के भोगन में,
अथ राग द्वेष के योगन में.
नाहीं लिप्त, जो प्राणी सचेत रहै,
नाहीं आवत भोग प्रलोभन में
<span class="upnishad_mantra">श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३- ३५॥</span>
गुणहीन ही आपुनि धरम भल्यो,
गुणयुक्त धरम सों औरन के
आपुनि धरमन में मरण भल्यो,
भय देत धरम हैं औरन के
<span class="upnishad_mantra">अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३- ३६॥</span>
अर्जुन उवाच
हे कृष्ण! कहौ केहि सों प्रेरित,
कैसे बिनु चाह के चाहे बिना,
अघ भाव हिया धारै प्राणी
<span class="upnishad_mantra">काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३- ३७॥</span>
काम समूल है पापन कौ ,
कबहूँ न अघात जो भोगन सों,
निष्पन्न जो होत रजोगुण सों ;
यही पाप को मूल है बैरन सों
<span class="upnishad_mantra">धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३- ३८॥</span>
जस धूम्र सों पावक, जेर सों गर्भ,
धूलि सों दरपन धूमिल है.
अज्ञान सों ज्ञान की वैसी गति;
तस काम सों ज्ञान भी धूमिल है
<span class="upnishad_mantra">आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३- ३९॥</span>
यही काम की आग ही हे अर्जुन!
है ज्ञानिन की अति बैरी बनी,
यही ज्ञान बिनासत ज्ञानिन कौ,
नाहीं होत शमित बल जाकी घनी
<span class="upnishad_mantra">इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३- ४०॥</span>
मन इन्द्रिय, बुद्धि ये सगरे,
ही काम निवास कहावत हैं,
यही ज्ञान कौ आच्छादित करिकै,
देही कौ मोह करावत हैं.
<span class="upnishad_mantra">तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३- ४१॥</span>
सदबुद्धि विनाशक काम बली,
कौ विनाश करौ, जो महा पापी,
इन्द्रिन वश मांहीं करौ अर्जुन,
बहु पाप समूल है संतापी
<span class="upnishad_mantra">इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३- ४२॥</span>
इन्द्रिन तौ होत बली अतिशय,
पर इन्द्रिन सों मन होत परे.
तासों अति बुद्धि होत परे,
बुद्धिं सों आतमा होत परे
<span class="upnishad_mantra">एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥३- ४३॥</span>
यही आतमा बुद्धि सों होत परे,
जानी के मन वश माहीं करौ.