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<span class="upnishad_mantra">
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१४- १६॥
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फल ज्ञान विरागन कौ निर्मल,
सत करमन सों ही आवत है.
रज, तामस, दुःख दारुण विषाद,
अज्ञानी मनुज बनावत है
<span class="upnishad_mantra">सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१४- १७॥</span>
सत गुन सों ज्ञान, रजो गुन सों,
बिनु संशय लोभ ही विकसत है,
बिनु ज्ञान प्रमाद , तो मोह घनयो,
तामस गुन जीवहिं पकरत हैं
<span class="upnishad_mantra">ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१४- १८॥</span>
जिन सतगुन वृत्ति प्रधान जना,
वे श्रेयस लोक ही जावत है,
जिन राजस, मध्य, मनुज योनी,
तिन तुच्छ सी योनी पावत है
<span class="upnishad_mantra">नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१४- १९॥</span>
जेहि कालहिं दृष्टा तीनहूँ गुन,
सों अन्य न करता देखे कोऊ,
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं.
अस जानि, मोहे जाने सोऊ
<span class="upnishad_mantra">गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥१४- २०॥</span>
गुन तीनहूँ सों , जब देह परे,
समरथ हुई जावति है नर की.
छुटे जन्म, ज़रा, ब्याधि मृत्यु,
तिन पावैं कृपा करुनानिधि की
<span class="upnishad_mantra">कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥१४- २१॥</span>
अर्जुन उवाच
गुन तीनहूँ सों जो होत परे ,
कथ कैसो करत आचार कहाँ ,
परे कैसे गुनान सों होत अहो
<span class="upnishad_mantra">प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥१४- २२॥</span>
जिन राजस, सत्व, तमो गुन के ,
गुन होत प्रवृत पर उन्मन हो,
तिन राग विराग न चाह रहे ,
लपटात न काहू सों तन-मन हो
<span class="upnishad_mantra">उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥१४- २३॥</span>
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं,
साक्षी, निरपेक्ष उदास रहै,
अस जानि कदापि डिगत नाहीं,
तिनके ब्रज नंदन पास रहें
<span class="upnishad_mantra">समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥१४- २४॥</span>
जिन पाथर कांकर , सुबरन में,
निंदा-स्तुति, सुख-दुखन में,
अप्रिय -प्रिय माहीं धीर धरै,
सम भाव रहै , सब भावन में
<span class="upnishad_mantra">मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥१४- २५॥</span>
अपमान व् मान समान लगै,
कर्तापन भाव विहीन रहै,
सगरे ही गुनान सों होत परे,
रिपु मित्र में भाव समान रहै
<span class="upnishad_mantra">मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१४- २६॥</span>
व्यभिचार विहीन जो भक्ति करै,
नित नित्य निरंतर मोहे भजै,
गुन तीन गुनान सों होत परे ,
सत भक्त महान निरंतर मोहे रुचै
<span class="upnishad_mantra">ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥१४- २७॥</span>
अविनासी ब्रह्म परम प्रभु कौ,
एकमेव अखंड आनंद सुधा ,