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जन्म / राजेश जोशी

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'''जन्म'''
ऊट की पीठ पर अपनी खटिया बाँध कर<br\>चल देंगे अभी बंजारे<br\>
दूर तक उनके साथ साथ जायेगी मेरी बेचैन आत्मा.
धूप के साथ सरकती किसी पेड़ की छाँव में<br\>डाल देंगे वे अपना डेरा और पकायेंगे<br\>बाटियाँ और दाल<br\>छाँह के साथ सरकते रहेंगे वे दिनभर<br\>
घड़ी की सुइयों के साथ जैसे सरकता रहता है समय.
कितनी अनमोल, कितनी अद्वतीय होती हैं वे साधरण चीजें<br\>
जिनके सहारे चलता है यह महाजीवन.
वो छोटी सी काली हंडिया जिसमें पकाई जाती है दाल<br\>और रख ली जाती है जीवन की छोटी छोटी खुशियाँ.<br\>पुराने अखबार का वो कोई छोटा सा टुकड़ा<br\>जिसमें बाँध कर रखा जाता है नमक<br\>इतने सहेज कर रखती है वह बंजारन औरत नमक को<br\>
काग़ज में बाँध लिया हो जैसे उसने पूरा अरब सागर.
बंजारों ने अभी डेरा डाला है मेरे घर के ऎन सामने<br\>किसी फल की फाँक की तरह आसमान पर लटका है<br\>कार्तिक की सप्तमी का चाँद<br\>सड़क के एक किनारे, पान की गुमटियों के पीछे<br\>एक छोटे से टाट की आड़ और लालटेन की मद्धिम रोशनी में<br\>बंजारन बहू ने जन्म दिया है अभी अभी<br\>
एक बच्चे को!
० अक्टूबर १९८७
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