1,458 bytes added,
16:53, 16 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
चैन उडा़ती रातें आईं
धूल उडा़ते दिन आए हैं।
::सीधी राह गुज़रना मुश्किल
::ऐसे दौर कठिन आए हैं।
सुख की नींद हमें भी मिलती
जो ख़ुद हम नादान न होते
काश, छ्तों को आँखें होतीं,
दीवारों के कान न होते
::फिर भी पूरब की खिड़की से
::क्या उजियारे बिन आए हैं?
बेमानी हैं नाते-रिश्ते
पास-पड़ोस असलहों वाले
आँखें जख़्मी, सपने घायल
और जबानों पर हैं ताले
::घर के लोग सयाने कितने
::हम उँगली पर गिन आए हैं।
हम ऐसे राजा के बेटे
जिनके लिए मॄगदाव लिखा है
एक अदद लम्बा निर्वासन
कुनबे का बिखराव लिखा है
::फिर भी बन-बन भटकाने को
::जब-तब हेम हिरन आए हैं।
</poem>