1,513 bytes added,
18:20, 19 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
हम न रुकेंगे गलियारों में,
हम न बिकेंगे बाज़ारों नें
:::बाकी है ईमान अभी भी
आधी और गुज़र जाएगी
:::इतना है सामान है अभी भी
:::संचय का सुख जान न पाए
जोड़े भी तो सपने जोड़े -
इन हाथों से नीले नभ नें
कितने श्वेत कबूतर छोड़े?
हम विषपायी जनम-जनम के
:::ज़िन्दा वो पहचान अभी भी।
आग चुराकर सौ दुख झेले
सब कुछ देकर आग बचाई
बन बै ठे चन्दन की समिधा
चारों कोने आग लगाई
जलकर भी ख़ुशबू ही देगें
:::जलने का अभिमान अभी भी।
बाग़ी, हमदम, दोस्त हमारे
मरजीवों से रिश्ते - नाते
दुनिया हमको समझ न पाती
हम दुनिया को समझ न पाते
लीकें छोड़ें. पत्थर तोड़ें
:::हम ऐसे तूफ़ान अभी भी।
</poem>