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18:38, 19 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
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<poem>
वे लोग जो काँधे हल ढोते
खेतों में आँसू बोते हैं-
उनका ही हक़ है फ़सलों पर
अब भी मानो तो
बेहतर है।
जिनके सपने बेग़ैरत हैं
अक्सर जो
चुप रह जाते हैं
झिड़की खाने के आदी हैं
फुटपाथों पर
सो जाते हैं
वे लोग बड़े गुस्से में हैं
रुख़ पहचानो तो
बेहतर है।
जिनके पुरखे भी ‘चाकर’ थे
जिनकी घरवाली
‘बाँदी’ थीं
जिन पर कोड़े बरसाने की
कारिन्दों को
आज़ादी थी
वे लोग खड़े सीना ताने
उनकी मानो तो
बेहतर है।
</poem>