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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
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}}
[[Category:कविता]]
<poem>
कोई विधि-विष्णू को कोई शिव-शक्ति को कोई गणपति दिव्यकर को कहता बड़ा।
मुझ निरालम्ब के बल तुम्ही सच्चे प्रभु इसलिये अब तुम्हारी शरण में कहता पड़ा।

शास्त्रों-संतों की सुनता नहीं घोषणा जिनको समझा रतन सारे मिट्टी हैं वे।
बस कुटुम्बी जनों पर भरोसा किया जानकर भी धोखे की हैं वे।
हे दया धाम गाढ़ा विपत्ति में सिवा आपके दीखता है न कोई खड़ा-
मुझ निरालम्ब के बल 0............................................।।1।।

अघ-दरेरे में पड़ प्राण सहते घुटन, दीर्घ चट्टान के नीचे राई हो ज्यों।
प्रेम से शून्य उर की दशा देख लो, बाल-विधवा की सूनी कलाई हो ज्यो।
क्या प्रणतपाल मैं चाल अपनी कहूँ खोदता नित नया पाप-मुर्दा गड़ा-
मुझ निरालम्ब के बल 0............................................।।2।।

हैं खिले वासना के अनोखे सुमन कितना गुलजार है इन्द्रियों का चमन।
देव-दुर्लभ मनुज तन ग्रसित रोग से अपना जीवन हुआ है लुटेरों का धन।
फूल-बगिया में तेरे उपद्रव मचा मेरे माली करो अपना पहरा कड़ा-
मुझ निरालम्ब के बल 0............................................।।3।।

श्वान-सूकर-श्रृंगालों की ही योनि में नीच मुझसे नराधम हैं करते भ्रमण।
क्यों न हो उसको सब दुर्दशा झेलनी हो गया हो जिसे आपका विस्मण
मेरे प्राणेश बढ़ कर उबारो स्वयं मुझसे अघ से नहीं जा सकेगा लड़ा-
मुझ निरालम्ब के बल 0............................................।।4।।

भूल कर भी कभीं आपका हूँ यही कह दिया हो कहीं नीच से नीच भी
उसको निजधाम में आप लेते बसा भूलकर उसके अघ-दोष-दुर्गुण सभी
निज चरण-पादुका के प्रहारों से प्रभु फोड़ दो मेरे पापों का ‘पंकिल’ घड़ा
मुझ निरालम्ब के बल 0............................................।।5।।
</poem>
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